रात ढली ही नहीं!
करवट बदलता रहा बिछौने पर।
ऑंखों में रौद्र की लालिमा;
मस्तिक में प्रश्नों का तूफ़ान;
जीवन की आद्योपंत रेखा;
खींच गई मानस पर।
अट्टहास करते हुए,
कापुरूषों की वाणी
गूॅंजने लगी रात्रि के अंतिम पहर में।
जैसे मिला रही हो सुर,
झींगुरों और जलकुकुट्टों के स्वर से।
एक प्रश्न तैरता है!
मानस के तरंगों पर।
पथ परिवर्तन या पथ विस्थापन?
व्यर्थ लगता है यह गगन,
ये सीमाएँ, उनका विस्तार
व्यर्थ लगने लगता है,
प्रतिवाद, आक्रोश और साहचर्य।
मन झुंझलाहट और खीझ से,
भर उठता है।
तभी विचार कौंधता है,
मन में!
पथ एक और है जो,
प्रयत्न और प्रारब्ध से
जा पहुॅंचता है―
उस स्थान पर, जहाॅं
प्रकृति दोनों बाँहें फैलाए,
स्वागत के लिए खड़ी हो
सदियों से,
राह ताकते पथिक का।