पालने की हँसी (कविता)

चाँदनी के उजले फ़व्वारों-सी
ख़ुशियाँ भर देती है मुझमें
पालने की हँसी।

यही हँसी
एक दिन बन जाती है कला,
और कल ढल जाएगी आस्थाओं में।

इसी तरह कभी हँसती होऊँगी मैं,
सुबह की ठंडी घास पर
ओस की तरह मचलती हुई।

आज व्यंग्य बन गई है
ज़िंदगी की हँसी।
तो फिर चाहती हूँ
आज पालने की हँसी पाना,
मगर कितना मुश्किल है
वहाँ तक पहुँच पाना।


रचनाकार : शैलप्रिया
यह पृष्ठ 178 बार देखा गया है
×

अगली रचना

शहर क्या होता है


पिछली रचना

शब्द
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें