नहीं... नहीं...
मुझे इल्ज़ाम न दो
मैं कहाँ टूटता हूँ आदमी पर
आदमी टूट रहा है मुझ पर।
मेरे बाल
मेरी खाल
मेरी हड्डी
मेरी मज्जा
मेरी पेशियाँ
मेरी आँतें
क्या छोड़ा है उसने साबूत मेरा
मुझे कूटा-मुझे लूटा
मुझे छेड़ा-मुझे उधेड़ा
मुझे काटा-मुझे पीटा
मुझे तोड़ा-मुझे फोड़ा
मुझे सुखाया-मुझे डुबाया
क्या-क्या न किया जा रहा मेरे साथ
मेरा रोना
मेरा कराहना
मेरा तड़फना
मेरा कलपना
मेरा चीखना
नहीं दिखाई देता कभी उसे
मैं कहाँ किसी पर टूटता हूँ
मैं तो खड़ा रहना चाहता हूँ अडिग
मैं जानता हूँ
उसी में मेरी आन है बान है शान है।
मैं तो चुपचाप देखता रहता हूँ
जब तक रह पाता हूँ
खड़ा रहता हूँ
खोद दी जाती हैं जड़ें मेरी तो
टूटना मेरी नियति है।
मुझे नहीं मालूम
कौन मेरे नीचे आकर दब गए
किसके उजड़ गए परिवार
किसकी करनी, किसकी भरनी।
दुःख अवश्य होता है कि
जिनको खेलाया-कुदाया अपनी गोद में
उनकी ही क़ब्र बन बैठा
मुझे मालूम है इनकी कोई लड़ाई नहीं मुझसे
न कोई प्रतिस्पर्धा
मुझसे अलग कहाँ हैं ये
इनकी ज़रूरतों को पहचानता हूँ मैं
ये भी जानते हैं मेरी आदतों को
मैंने जो दिया इन्हें
सहर्ष स्वीकारा इन्होंने
इनका खोदना-गोड़ना, चलना-फिरना
हमेशा से प्रीतिकर ही लगता रहा है मुझे
इनकी कुदाल-कस्सी-फावड़ा
गैंठी-बेल्चा-संबल
मुझे गुदगुदाते हैं बहुत
इनके बिना तो मैं भी रहता हूँ
उदास-उदास-सा
सदियों से साथ रहा है इनका और मेरा
पर जिसकी इच्छाएँ नहीं होती तृप्त
भूख नहीं होती शांत
क्या-क्या न! बना डाला है उन्होंने
मुझे तोड़ने-फोड़ने-छेदने-काटने के लिए
जैसे यु़द्ध करने उतरे हाँ मुझसे
मुझे नहीं पता
उनके अस्त्र-शस्त्र-विस्फोटकों के नाम
ये फनाकार-सूँड़ाकार-पंजाकार
राक्षसी मिथक को मात देने वाले
कितने विशालकाय
कितने मारक हैं।
मुझे जीतने आए हैं वे
या
ख़ुद को हारने
मैं कह नहीं सकता
मैं तो कह सकता हूँ सिर्फ़ इतना
मैं कहाँ टूटता हूँ आदमी पर...।
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