पैग़ाम-ए-रिहाई दिया हर चंद क़ज़ा ने
देखा भी न उस सम्त असीरान-ए-वफ़ा ने
कह दूँगा जो की पुर्सिश-ए-आमाल ख़ुदा ने
फ़ुर्सत ही न दी कशमकश-ए-बीम-ओ-रजा ने
है रश्क-ए-इरम वादी-ए-पुर-ख़ार-ए-मोहब्बत
शायद उसे सींचा है किसी आबला-पा ने
ये ख़ुफ़िया-नसीबी कि हुए और भी ग़ाफ़िल
नग़्मे का असर हम पे किया शोर-ए-दरा ने
ख़ाकिस्तर-ए-दिल में तो न था एक शरर भी
बेकार उसे बर्बाद किया मौज-ए-सबा ने
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असीरों में भी हो जाएँ जो कुछ आशुफ़्ता-सर पैदापिछली रचना
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