कल की परछाईं
गिरती है
आज की देह पर
ज़रूरतें रोज़ झरती हैं पहने हुए कपड़ों पर
काठ की नसैनी के नीचे एक पुराना पीला पत्ता
उड़ता है मृत्यु को सरल बनाते हुए
मकान नदी के शीशे में झाँकते हैं
और दूरियाँ बीच में रख कर रेलगाड़ियाँ गुज़रती रहती हैं
बस, कभी-कभी मेरी कविता में गिरते हैं
विराम-चिह्नाें के पत्थर!
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