परछाईं (कविता)

वक्त कितना भी बदल जाए
हम कितने भी आधुनिक हो जाएँ,
कितने भी ग़रीब या अमीर हों
राजा या रंक हों
नर हो या नारी हों
परछाईं हमारी आपकी अपनी है।
सबसे क़रीब सबसे वफ़ादार
साथ नहीं छोड़ती,
हम चाहें भी तो भी नहीं
मरते दम तक साथ निभाती है,
हमारे साथ चिता तक जाती
हमारे शव के साथ जलकर
हमारे शरीर का अस्तित्व मिटने के साथ
हमारी परछाईं मिट जाती
अपना वजूद खो देती।
मगर विडंबना देखिए
हमसे कुछ नहीं पाती
न ही कुछ चाहती है
परंतु हमारा साथ पूरी निष्ठा से निभाती
परछाईं होकर भी
हमारे वजूद से हमेशा चिपकी रहती
हर क़दम पर साथ देती
हमारी अपनी परछाईं।


लेखन तिथि : 8 जनवरी, 2022
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