परिणति (कविता)

दु:ख की प्रत्येक अनुभूति में,
बोध करता हूँ कहीं आत्मा है
मूल से सिहरती प्रगाढ़ अनुभूति में।
आत्मा की ज्योति में,
शून्य है न जाने कहाँ छिपा हुआ
गहन से गहनतर
दु:ख की सतत अनुभूति में
बोध करता हूँ एक महत्तर आत्मा है,
निविडता शून्य की विकास पाती उसी भाँति,—
सक्रिय अनंत जल-राशि से
कटते हों कूल ज्यों समुद्र के
एक दिन गहनतम इसी अनुभूति में
महत्तम आत्मा की ज्योति यह
विकसित हो पाएगी चिर परिणति महाशून्य में।


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