पश्चाताप (कविता)

हार गया मैं!
सोचता था; ख़ुश रखूँगा,
अपनों को, संगी-साथियों को, अपरिचितों को।
सपना था
पूरा किया भी सपनों को,
पर! न कर पाया अपनों को।
पश्चाताप;
एक घोर पश्चाताप होता है,
हर दिन, हर क्षण।
आँखें अश्रुपात करती हैं, पर
कह नहीं पाती;
अपनी उद्वेलित भावनाओं को
जो क्षमा के लिए निरंतर आतुर रहती हैं।
साहस नहीं होता
कह सकूँ;
अपने हृदयस्थ उमड़ते सागर को।
दिखा सकूँ;
बारम्बार;
निज वेदना, टीश औ दुःख को,
जो क्षण प्रतिक्षण कमज़ोर बनाते हैं।
हरता जाता मैं,
साहस, धैर्य औ जीवन से।
क्षमा चाहता हूँ,
अपनी ग़लतियों का।
न भी करें, तो कोई बात नहीं।
मैं समझ लूँगा,
मेरी ग़लती अक्षम्य है।
पर! एक बार
सिर्फ़ एक बार...
देख तो लें,
इस अभागे की अश्रुओं को
जिनमें मुआफ़ी की लाखों बूँदें,
समाहित है।


रचनाकार : प्रवीन 'पथिक'
लेखन तिथि : 11 सितम्बर, 2016
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