पीले फूल कनेर के!
पथ अगोरते।
सिंदूरी बडरी अँखियन के
फूले फूल दुपेर के!
दौड़ी हिरना
बन-बन अँगना—
बेंतवनों की चोर मुरलिया
समय-संकेत सुनाए,
नाम बजाए;
साँझ सकारे
कोयल-तोतों के संग हारे
ये रतनारे—
खोजे कूप, बावली, झाऊ,
बाट, बटोही, जमुन कछारें—
कहाँ रास के मधु पलास हैं?
बटशाखों पे सगुन डाकते मेरे मिथुन बटेर के!
पीले फूल कनेर के!
पाट पट गए,
कगराए तट,
सरसों घेरे खड़ी हिलाती पीत-सँवरिया सूनी पगवट,
सखि! फागुन की आया मन पे हलद चढ़ गई—
मँहदी महुए की पछुआ में
नींद सरीखी लाज उड़ गई—
कागा बोले मोर अटरिया
इस पाहुन बेला में तूने।
चौमासा क्यों किया पिया?
क्यों किया पिया?
यह टेसू-सी नील गगन में हलद चाँदनी उग आई री—
उग आई री—
पर अभी न लौटे उस दिन गए सबेर के!
पीले फूल कनेर के!

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
सहयोग कीजिएप्रबंधन 1I.T. एवं Ond TechSol द्वारा
रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें
