माँ ने जन्म दिया
बाबूजी ने मज़बूत हाथों का सहारा
तब बनी मेरी पहली पहचान।
गाँव से निकलकर
शहर में आया
चकाचौंध भरी रौशनी तो मिली
पर ना मिली पहचान।
बाबूजी ने हिम्मत बढ़ाई
ख़ूब मेहनत की
तब जाकर कॉलेज में
मिली दूसरी पहचान।
साधारण परिवार में जन्म के कारण
ना दौलत मिली ना शोहरत
मेहनत कर नौकरी पाई
तब मिली तीसरी पहचान।
हर पहचान के पीछे
बाबूजी का मिला आशीर्वाद
समय अपने पहिए पर घूमता रहा
पहचान मेरी बढ़ती रही
और फिर एक दिन!
पहचान दिलाने वाला
इस दुनिया से जाने का ग़म दे गया।
रात के अँधेरे में,
तो कभी दिन के उजाले में,
ढूँढ़ती रहती है निगाहें उनको
पर मिलता नहीं कुछ सिवाए सन्नाटे के।
घर की दिवार पर टंगी है
तस्वीर उनकी...
और जीवन में एक सन्नाटा
ना जाने कहाँ चले गए
मुझे मेरी पहचान दिलाने वाले।
साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
सहयोग कीजिएरचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें