प्रत्यूष के पूर्व (कविता)

दूर छिपा है भोर अभी आकाश में,
पश्चिम में धीरे-धीरे पर डूबता
ठिठुरन से छोटा हो पीला चंद्रमा,
धुँधली है तुषार से भीगी चाँदनी
सीत्-सीत् करती बयार है बह रही,
बरस रहा खेतों पर हिम-हेमंत है,
हरी-भरी बालों के भारी बोझ से,
मूर्च्छित हो धरती पर झुकी मोराइयाँ।
बरगद के नीचे ही महफ़िल है जमी,
घुँघरू की छुम-छुम पर तबला ठनकता,
पेशवाज़ से सजी पतुरियाँ नाचतीं,
मीठी-मीठी सारंगी भी बज रही।
उडती गहरी गंध हवा में इत्र की,
उजले धुले वस्त्र पहन बैठे हुए,
दारू का चल रहा दौर पर दौर है।
कहते हैं, स्वामी जो थे इस भूमि के,
हत्यारों से वे अकाल मारे गए।

सीत-सीत् करती बयार है बह रही,
पौ फटने में अभी पहर भर देर है।
बरगद से कुछ दूरी पर जो दीखता
ऊँचा-सा टीला, उस पर एकत्र हो,
ऊँचा मुँह कर देख डूबता चंद्रमा
हुआ-हुआ करते सियार हैं बोलते।


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