पुरानी शर्म (कविता)

मैं चाहता हूँ कि भूल जाएँ लोग मुझे

सुखद आकांक्षा की तरह
नहीं आऊँ उनकी स्मृति में
और मिटा डालें वे अपनी
चेतना की स्लेट से मेरे
कर्मों-दुष्कर्मों का लेखा-जोखा

चाट जाएँ दीमक मेरे पार्थिव यश
जिन्हें मैंने नहीं इकट्ठा किया

मैं चाहता हूँ कि भूल जाऊँ ख़ुद को ही
कि शायद इसी तरह झुठला सकूँ
विरासत में मिली
हज़ारों साल पुरानी शर्म।


यह पृष्ठ 141 बार देखा गया है
×

अगली रचना

इंतज़ार


पिछली रचना

आदमी क्या चाहता है


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें