पुरवाई कुछ बोल
रही है-
पछुआ सुनती है!
हरियाली ने
भरपूर जीवन
पाया है!
बूँदें बरस रहीं
बादलों की
माया है!!
पावस की शाम
अक्सर-
इन्द्रधनुष बुनती है!
गझिन-गझिन
झाड़ी से है
गंध फूट रही!
खलबट्टे से है
अम्मा धना
कूट रही!!
मनहूस समय की घड़ियाँ
अपना-
सिर धुनती हैं!
नदी-नाले
अहंकार में
उफनाए हैं!
मानो कोकिला
पंचम स्वर में
गाए है!!
भोर में बाला
रंग बिरंगे-
फूल चुनती है!

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