वृक्ष से लिपटी हुई क्वाँरी लताएँ,
दो नयन
मानो अपरिमित प्यास के संदर्भ में काली घटाएँ,
कौंधती नंगी बिजलियाँ,
उर्वरा धरती समर्पित,
सृष्टि का आभास वर्जित गर्भ में,
तुष्टि का अपयश
कलंकित मालती की दुधमुँही कलियाँ?
हज़ारों साल बूढ़े मंदिरों
तुम चुप रहो,
आत्मीय है वह नाम जो अज्ञात—
उसको पूछने से पाप लगता,
फूल हैं उसकी ख़ुशी की देन
उनको पोछने से दाग़ लगता!
पतित-पावन वत्सला धरती
तुम्हारे पुत्र हैं जो जन्म ले लें...
साक्षी हैं,
फूलदानों में सिसकते चंद धुँधले फूल,
कुंठित सभ्यता के किसी तोषक अर्थ में
वनजात है सौंदर्य की भाषा!
उसे स्वच्छंद रहने दो।
बड़े संयोग से ही यह कहानी
सुनी तारों की ज़ुबानी
प्यार के सौजन्य से।
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