राही से (कविता)

इस मुसाफ़िरी का कुछ न ठिकाना, भइया!
याँ हार बन गया अदना दाना, भइया।
है पता न कितनी और दूर है मंज़िल
हम ने तो जाना केवल जाना, भइया!

तकरार न करना जाना है एकाकी
हमराह बचेगा कौन भला अब बाक़ी
जब संबल भी सब एक-एक कर छुटता
बस बची एक झाँकी उन नक़्शे-पा की।

छुट चले राह में नए-पुराने साथी
मिट गई मार्गदर्शक यह कंपित बाती
नंगी प्रकृति वीरान भयावन आगे।
मैं जाता हूँ, आओ, हो जिस की छाती!


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