रात भर चराग़ों की लौ से वो मचलते हैं (ग़ज़ल)

रात भर चराग़ों की लौ से वो मचलते हैं,
नींद क्यों नहीं आती करवटें बदलते हैं।

भीड़ क्यों जमा की है चाँद ने सितारों की,
जुगनुओं की बस्ती में चाँद सौ निकलते हैं।

आप तो छुआ करते ख़ार भी नज़ाकत से,
आजकल हुआ क्या है फूल को मसलते हैं।

जाइए जला दीजे दीप उस अँधेरे में,
तब तलक हवाओं की सम्त हम बदलते हैं।

इस ज़मीं को रहने दो थोड़ी खुरदरी सी भी,
बारिशों में बच्चों के पाँव भी फिसलते हैं।

होंट हो गए उनके जलके लाल शोलों से,
बात वो नहीं करते आग सी उगलते हैं।


रचनाकार : मनजीत भोला
  • विषय :
लेखन तिथि : 12 जुलाई, 2022
यह पृष्ठ 139 बार देखा गया है
×

अगली रचना

हम जान गए साधो दरबार सियासी है


पिछली रचना

इक तरफ़ है प्यास दूजी ओर पानी का घड़ा


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें