रात (नज़्म)

मिरी दहलीज़ पर बैठी हुई ज़ानू पे सर रक्खे
ये शब अफ़्सोस करने आई है कि मेरे घर पे
आज ही जो मर गया है दिन
वो दिन हम-ज़ाद था उस का
वो आई है कि मेरे घर में इस को दफ़्न कर के
इक दिया दहलीज़ पर रख कर
निशानी छोड़ दे कि महव है ये क़ब्र
इस में दूसरा आ कर नहीं लेटे
मैं शब को कैसे बतलाऊँ
बहुत से दिन मिरे आँगन में यूँ आधे अधूरे से
कफ़न ओढ़े पड़े हैं कितने सालों से
जिन्हें मैं आज तक दफ़ना नहीं पाया


रचनाकार : गुलज़ार
यह पृष्ठ 212 बार देखा गया है
×

अगली रचना

लकड़ी की काठी काठी पे घोड़ा


पिछली रचना

पेंटिंग
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें