रात फिर बोलती रहीं आँखें (ग़ज़ल)

रात फिर बोलती रहीं आँखें,
राज़ सब खोलती रहीं आँखें।

किस तरह ए'तिबार कर पाते,
हर तरफ़ डोलती रहीं आँखें।

मेरे कपड़ों से घर से गाड़ी से,
हैसियत तौलती रहीं आँखें।

चेहरे कितने नक़ाब पहने थे,
सूरतें मोलती रहीं आँखें।

थी वहाँ मय न साक़ी पैमाने,
पर नशा घोलती रहीं आँखें।


रचनाकार : रेखा राजवंशी
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