रात (कविता)

कंधे पर टँगे थैले से लेकर
बिस्तर तक
कितना कुछ हो गया होता है
रात देर गए
जब हम अपने घरों में लौटते हैं
कितना भारी-भारी हो गया होता है हमारा घर
तलुओं और पिंडलियों के भीतर
फड़फड़ाती थकान
और पोर-पोर से फूटता दर्द
हमारे ठंडे खाने को कितना गर्म कर देता है।

हमारे शरीर की चुप्पी
शहर पर कितनी जल्दी छा जाती है
और कितनी नींद में होती है हमारी चेतना
कि जब हमारी मेडिकल रिपोर्टों में
कुछ भी नॉर्मल नहीं होता
तो किसी को भी आश्चर्य नहीं होता।

हमारे भीतर पनप रहे
किसी गंभीर रोग की चिंता में
सिर्फ़ हमारी प्रेमिकाएँ कुछ देर सुबकती हैं
और संबंध तोड़ लेती हैं,
घर की चिट्ठी
राशन कार्ड
और लकड़ी के सपनों को ओढ़कर
जब हम
अपनी फटी पैंट को पलटवाने के बारे में
सोचते हुए
अचानक सो जाते हैं।

हमारे भीतर पल रहे रोग का चेहरा
उतर जाता है
और हमारे शहर में
एक सड़क
हम लोगों को याद करती हुई
रात भर जागती है।


रचनाकार : शरद बिलाैरे
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