रचना विधना (गीत)

देख तिहारी प्यारी दुनियाँ,
मन ही मन हर्षाऊँ मैं।
मन बगिया की कली बनूँ,
लहर-लहर लहराऊँ मैं।

सौंधी माटी महक रही है,
किस विध पाँव पखारु मैं।
मनवा चाहे फूल बनूँ और,
ख़ुद ही बिछ-बिछ जाऊँ मैं।

हर रतिया में उनसे बतिया,
सुबह भी उनसे उगती है।
आँगुर पोर छुअन से कंपित,
पाथर मन पिघलाऊँ मैं।

निंदिया अभी जवाँ है मेरी,
सपने नए सजाऊँ मैं।
सुरख गुलाबी गाल हुए,
मन हीं मन मुस्काऊँ मैं।

चाहत जगी मस्त है आलम,
लगे पंख अरमानों में।
ऊसर शुष्क मैदानों को,
शोधित कर हरित बनाऊँ मैं।

रोम-रोम में बसे वो ऐसे,
जैसे मुरली मन श्याम बसे।
अपनी क़िस्मत के ऊपर,
मन ही मन इतराऊँ मैं।

मीरा ने पिया विष प्याला,
जपों हरि ले तुलसी माला।
सूर कबीर रूहानियत को,
नेह-ज़ंजीर बनाऊँ मैं।

पंक्षी सी उन्मुक्त गगन में,
चाहूँ उड़ना शीत पवन में,
तारों की छैंया से पहिले,
भू-रज चूमना चाहूँ मैं।

प्रीत-मीत से नहीं रुसवाई,
ईश्वर-अल्लाह एक ख़ुदाई।
प्रेम न माने जात-पांत को,
मरहम बन समझाऊँ मैं।

जन्म हुआ मानवता ख़ातिर,
फिर से अलख जगाऊँ मैं।
तू ही काशी, तू कावा भी,
तुझमें ही धुनी रमाऊँ मैं।

ब्रज के हर घर-आँगन में,
दही-माखन भोग लगाऊँ मैं।
मुरली की सुन मधुर धुन,
ग्वाल वाल संग जाऊँ मैं।

वृंदावन की कुंज गलियन में,
राधा संग रास रचाऊँ मैं।
काँहा की एकही रुकमनी,
घर-परिवार बसाऊँ मैं।

देख तिहारी प्यारी दुनियाँ,
मन ही मन हर्षाऊँ मैं।
प्रभु तेरा उपकार अनंता,
शीश अजय झुकाऊँ मैं।।


लेखन तिथि : 24 नवम्बर, 2021
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