रहूँ ख़ुद में मलंग इतना, गर्दिश-ए-अय्याम ना आए,
तू आए या ना आए, तसव्वुर भरी शाम ना आए।
ना बहे अश्क़ तिरी ग़म-ए-जुदाई में इन आँखों से,
वस्ल हो या ना हो, कि दवा फिर कोई काम ना आए।
चाँद से नहीं राब्ता मुझे, मिरा चाँद सर-ए-बाम आए,
दीदार हो पाए या ना पाए, शब-ए-अंजाम ना आए।
पुकारती हैं हरदम पाकीज़ा उल्फ़त मिरी, क्यूँ इतराए,
तू सुन पाए या ना पाए, फ़क़त चर्चा-ए-आम ना आए।।
मसरूफ़ रहे 'सुनील' यारों की बज़्म में, लबों पर नाम ना आए,
साक़ी आए या ना आए, होश-ओ-ख़िरद से काम ना आए।
अगली रचना
थे कभी हम-नफ़स हमराहों की तरहपिछली रचना
साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
सहयोग कीजिएरचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें