रहूँ ख़ुद में मलंग इतना, गर्दिश-ए-अय्याम ना आए (ग़ज़ल)

रहूँ ख़ुद में मलंग इतना, गर्दिश-ए-अय्याम ना आए,
तू आए या ना आए, तसव्वुर भरी शाम ना आए।

ना बहे अश्क़ तिरी ग़म-ए-जुदाई में इन आँखों से,
वस्ल हो या ना हो, कि दवा फिर कोई काम ना आए।

चाँद से नहीं राब्ता मुझे, मिरा चाँद सर-ए-बाम आए,
दीदार हो पाए या ना पाए, शब-ए-अंजाम ना आए।

पुकारती हैं हरदम पाकीज़ा उल्फ़त मिरी, क्यूँ इतराए,
तू सुन पाए या ना पाए, फ़क़त चर्चा-ए-आम ना आए।।

मसरूफ़ रहे 'सुनील' यारों की बज़्म में, लबों पर नाम ना आए,
साक़ी आए या ना आए, होश-ओ-ख़िरद से काम ना आए।


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