सूर्य का रथ
छिप गया नभ में,
मोरपंखी कल्पनाओं को लिए
घिर गई फिर से साँझ!
साँझ—
कितनी शांत, स्निग्धा साँझ!
ज्यों,
दिवस के तप्त जीवन में
मिला हो क्षणों को विश्राम।
किंतु,
ये क्षण हैं बहुत म्रियमाण
खंडित भावनाओं का कहाँ आधार?
चंद घड़ियों में घिरेगी रात
मौत-सी, काली भयावह रात
टूट जाएँगे सभी ये इंद्रधनुषी गीत
बिखर जाएँगे सपन के मोरपंखी रंग
शेष मेरी मुट्ठियों में बच रहेगा
रिक्तता का बोध
शून्य... कितना रिक्त
मेरी ज़िंदगी का क्रम!
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