रिश्ते (कविता)

कैसे हैं ये रिश्ते,
बनते और बिगड़ते रिश्ते।
कभी पास तो कभी दूर,
मिलने को हैं मजबूर।
न जाने क्यों कुछ पूछते हैं रिश्ते।

क्या दिया क्या लिया,
क्या खोया क्या मिला।
इसी उधेड़बुन में उलझते रिश्ते,
दोस्ती के रिश्ते, ख़ून के रिश्ते,
मतलब के रिश्ते, दफ़्तर के रिश्ते।

ये रिश्ते ही तो जीवन हैं,
फिर क्यों नहीं निभाते रिश्ते,
दिल से, प्यार से, ईमान से।

रिश्ते देने का नाम नहीं,
रिश्ते लेने का नाम नहीं,
रिश्ते तो वो बंधन हैं
जिस का कोई दाम नहीं।
चलो निभाते हैं रिश्ते,
खट्टे और मीठे ये रिश्ते,
बनते और बिगड़ते रिश्ते।


रचनाकार : दीपक झा 'राज'
लेखन तिथि : 12 अप्रैल, 2007
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