ऋतुराज बसंत पावन पर्व आया,
प्रकृति में ख़ुशी व उल्लास छाया।
परिमलित शीत बयार संचरित हो,
सुप्तस्थ हृदयाग्नि को है भड़़काया।
सज गए सुवासित पुष्पों से बगीचे,
बिछ गए हैं सरसों के पीत गलीचे।
विरह व्यथित हृदय करुण क्रंदति,
खुले स्मृति प्रकोष्ठ के सभी दरीचे।
अधरों पर लजराए कर्णप्रिय गीत,
बर्फ़ीली शरद ऋतु अब चली बीत।
अनावृत सृष्टिगत अप्रतिम सौन्दर्य,
प्रतीत हो विरहणी समक्ष मनमीत।
चतुर्दिश गूँजा पक्षियों का कलरव,
आकाश विलोकित शीतल आरव।
निर्झरिणी स्वच्छंद रहे प्रवाहशील,
रोमांचित प्रेरित ऊर्जित हुआ मानव।
प्रकृति में अद्भुत सी मादकता छाई,
आम्र मँजरी से शोभित हो अमराई।
भ्रमर गुंजन से संगीतमय हुए उपवन,
मनभावन छटा छाई अति सुखदाई।।
साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
सहयोग कीजिएरचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें