रोने से और इश्क़ में बेबाक हो गए
धोए गए हम इतने कि बस पाक हो गए
सर्फ़-ए-बहा-ए-मय हुए आलात-ए-मय-कशी
थे ये ही दो हिसाब सो यूँ पाक हो गए
रुस्वा-ए-दहर गो हुए आवारगी से तुम
बारे तबीअतों के तो चालाक हो गए
कहता है कौन नाला-ए-बुलबुल को बे-असर
पर्दे में गुल के लाख जिगर चाक हो गए
पूछे है क्या वजूद ओ अदम अहल-ए-शौक़ का
आप अपनी आग के ख़स-ओ-ख़ाशाक हो गए
करने गए थे उस से तग़ाफ़ुल का हम गिला
की एक ही निगाह कि बस ख़ाक हो गए
इस रंग से उठाई कल उस ने 'असद' की ना'श
दुश्मन भी जिस को देख के ग़मनाक हो गए
अगली रचना
आ कि मिरी जान को क़रार नहीं हैपिछली रचना
साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
सहयोग कीजिएरचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें