रोशनी (कविता)

सरल रेखाओं में चलती ज़रूर है
लेकिन उतनी सरल होती नहीं
इंद्रधनुष में किस सफ़ाई से देती है
अपने लचीले होने का एहसास
जबकि वहाँ भी वह सीधी रेखाओं में ही
चल रही होती है
तरंग हूँ तरंग हूँ कहती हुई
कणों में कर सकती है संचरण
और दोनों जगह अपने सही होने का
दे सकती है प्रमाण

उसकी रफ़्तार के बारे में तो सुना ही होगा आपने
अपनी तेज़ी के बावजूद
टकराकर धक्का नहीं देती
दबे पाँव बेवज़न और बेआवाज़ उतर सकती है चीज़ों पर

अदृश्य रहकर ख़ुफ़िया ढंग से
जा सकती है आर-पार
और हड्डियों में छिपा सारा भेद बाहर ला सकती है

छिपकर बैठ सकती है घने अंधकार में
आपके पारे को विचलित करती हुई
सन्नाटे में आवाज़ की तरह सुनाई दे सकती है
बहती हुई नदी में हवा में या चुंबक में ताप में आवाज़ में या रंगों में
कहीं भी हो सकती है

दो चकमक पत्थरों के बीच
कहाँ छिपी होती है चिनगारी
हम भूल जाते हैं कि वह पत्थरों से नहीं
हमारे हाथों से निकलती है
निकलती है उस ताक़त से जिससे
पत्थर से पत्थर पर होता है प्रहार

चीज़ों को जितना करती है उजागर
उससे ज़्यादा छिपाती है
रोशनी में चीज़ों को देखने से पहले
ज़रूरी है रोशनी को देखना
ज़रूरी है याद करना
कि कोयला भी उसका एक प्रिय घर है

ज़रूरी है अपने शरीर में बसे कोयले की याद।


रचनाकार : नरेश सक्सेना
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