सामना (कविता)

हवा ख़िलाफ़ थी
और मैं जा रहा था

एक चौराहा ही गुज़रा था
मुझे लगा
साइकिल में कम हो रही है हवा

दूसरे चौराहे तक पहुँचते-पहुँचते
टायर से हवा हो गई हवा
पूरी तरह से

हवा बह रही थी
और हमारे यहाँ लोकतंत्र भी था
लेकिन मैं इस क़दर निरुपाय था
कि थोड़ी-सी भी नहीं भर सकता था हवा
अपनी साइकिल में

काफ़ी देर घिसटने के बाद
मैंने देखा
पेड़ के नीचे बोरे पर बैठा एक आदमी
एक पंप और टूटे बक्से के साथ
जब मैं उसके पास पहुँचा
झपकी ले रहे थे औज़ार
उस टूटे बक्से में

साइकिल को देखते ही
वह आदमी बक्से पर झुका
आँखें मलने लगा औज़ार

फिर उसने टायर खोला
ट्यूब को पानी भरे तसले में डुबोया
और कुछ ग़ौर से देखने लगा
जैसे तलाश रहा हो वह जगह
जहाँ दुश्मन ने बना रखा है
चोर दरवाज़ा

पानी के बुलबुले के नीचे
छिपा था
चोर दरवाज़ा

मुझे यह करिश्मा-सा लगा
जब निस्पंद टायर ज़रा हिला
फिर लड़खड़ाता हुआ उठा
और तनकर खड़ा हो गया
एक योद्धा की तरह

तनकर खड़े होने में
कितना सौंदर्य है
कितनी गरिमा
मैंने पहली बार महसूस किया।


रचनाकार : विनोद दास
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