मसअला कई हैं मेरे ज़ेहन-ओ-दिल में,
तू पास आ जाए तो
सब सुलझा लगता हैं।
हक़ीक़त की ज़मीं
ख़्वाबों को देनी ही नहीं,
इस बाहर की दुनिया से
बड़ा डर लगता हैं।
मैं अकेलेपन में भी
कहाँ अकेला रहता हूँ,
मिरी ख़ल्वतों में
तेरा साया साथ लगता हैं।
निग़ाहों को जब से
तिरा दीदार हुआ हैं,
अब्तर दिल का
हर कोना जवाँ लगता हैं।
गुफ़्तगू-ए-इश्क़ में
जब से वो नूरानी हुई,
कहती हैं, आईने से मिलना
ख़ूब लगता हैं।
इस मौसम में भी
फ़लक घटा से खाली हैं,
मुझें मिरा बचपन
बड़ा ख़ूबसूरत लगता हैं।
तेरी बज़्म में
मोहब्बत करने फिर आऊँगा,
पेशानी पे अभी थोड़ा
और तिमिर लगता हैं।
घर से निकला हूँ
माँ की दुआएँ पहन के,
ग़ुरबत में भी कर्मवीर
कितना ख़ुश लगता हैं।