सहा उम्र भर पर जताया नहीं
तिरा ज़ख़्म हम ने दिखाया नहीं
अज़ल से खड़े हैं वफ़ाएँ लिए
किसी ने हमें आज़माया नहीं
मिला साफ़-गोई का हम को सिला
गले से किसी ने लगाया नहीं
हमारा ही दुख है उठाएँगे हम
है ये बोझ अपना पराया नहीं
सफ़र ज़िंदगी का रहा इस तरह
कड़ी धूप थी और साया नहीं
झुका है तो बस बंदगी में तिरी
कहीं और सर ये झुकाया नहीं
बहुत भा रही है न उल्फ़त तुम्हें
ये धोका अभी तुम ने खाया नहीं
यूँ 'वाहिद' तो इतना बुरा भी न था
तुझे ज़िंदगी ने निभाया नहीं