समय : एक (कविता)

समय अब पंचांग देखकर
नहीं आता
न तिथि या मुहूर्त देखकर

वह दिल्ली-कराची-लंदन के धमाकों को सुनकर
आता है
ज़मीन पाँव तले खिसक चुकी होती है
घास में प्रेमियों के पदचिह्न मिट चुके होते हैं

समय एक घायल पक्षी की तरह
चीख़ता है रात के सन्नाटे में

तभी पुलिसिया सीटी सुनाई दे जाती है
जब तक लोग ज़गें और चौकन्ने हों

एक और धमाका होता है
संसद पर

सदियाँ इसी तरह इतिहास बन जाती हैं
या कभी मलबे में बदल जाती हैं

पर समय में ही साबुत बच जाता है
एक मामूली आदमी
रोटी का कौर तोड़ता हुआ
वही बच्चे की हँसी में खोजता है
अपनी भाषा अपना सुकून
चिड़िया की उड़ान में
अपनी जिजीविषा।


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