संविधान दिवस (कविता)

आइए!
मौका भी है दस्तूर भी है
हमारे मन भरा फ़ितूर जो है,
आज भी हम
संविधान संविधान खेलते हैं,
जब रोज़ ही हम
पूरी ईमानदारी से खेलते हैंं,
तब आज भला खेलने से क्यों बचते हैं?
चलिए तो सही
आज संविधान दिवस की भी
तनिक औपचारिकता निभाते हैं,
आख़िर साल के बाकी दिन हम
संविधान का मख़ौल ही उड़ाते हैं।
हमें भला संविधान से क्या मतलब
हम तो रोज़ ही क़ानून का
मज़ाक उड़ाते हैं।
कभी धर्म के नाम पर
तो कभी अधिकारों के नाम
तो कभी बोलने की आज़ादी के नाम पर
अनगिनत बहाने हम ढूँढ़ ही लेते
संविधान का उपहास उड़ाने के।
संविधान की रक्षा
पालन की कसमें खाते हैं,
पर संविधान में लिखे क़ानून को
हम कितना मानते हैं?
हिंसा, तोड़फोड़, घर, दुकान
सरकारी संपत्तियों का तोड़फोड़
भड़काऊ भाषण, आपसी विभेद
जातीय टकराव, हिंसा
अलगाववादी विचारधारा
समाज, राष्ट्र में विघटन का षडयंत्र
भ्रष्टाचार, लूट खसोट
सरकारी धन का दुरुपयोग, बंदरबांट
निहित स्वार्थ पूर्ति के लिए
क्या कुछ नहीं होता है?
पर हमें कुछ नहीं दिखता है,
जैसे संविधान और क़ानून
महज़ बकवास है,
तभी तो आज़ादी का अधिकार
अभी तक हमारे पास है।
हमको लगता है
हम संविधान से ऊपर हैं
क़ानून हमारी मुट्ठी में है,
संविधान में जो लिखा है
हम उससे बहुत ऊपर हैं।
माना कि संविधान की रक्षा
और क़ानून का पालन
हमारी ज़िम्मेदारी है,
मगर हम करें भी तो क्या करें?
थोड़ा-थोड़ा इनसे खेलने की
हमें बड़ी बीमारी है।


लेखन तिथि : 26 नवम्बर, 2021
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