क्या तुम्हें डर नहीं लगता
उन शब्दों के इस्तेमाल से
जिनका कोई मेल नहीं तुम्हारे जीवन से
शब्द कोई गेंद नहीं
कि जिनसे हम मनचाहा खेल
सकें खेल
कि ख़त्म होने पर जो
पड़े रहेंगे किसी कोने में
क्या तुम्हें डर नहीं लगता
कि एक दिन एकजुट होकर तुम्हारे
ख़िलाफ़ उठ खड़े होंगे ये शब्द
बग़ावती मुद्रा में
तुम्हारे ही शब्द आएँगे
सवार होकर किसी और की आवाज़ में
शब्दों के आईने में देखते हो जब
अपना चेहरा
शर्म नहीं महसूस होती तुम्हें क्या
पहचान पाते हो कि नहीं
अपना ही चेहरा
कैसे किनारा कर लेते हो अपने ही शब्दों से
कैसे मुँह फेर लेते हो उनसे
क्या कभी तुम्हारे सपनों में
नहीं आते ये शब्द?
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