शख़्सियत उस ने चमक-दार बना रक्खी है
ज़ेहनियत क्या कहें बीमार बना रक्खी है
इस क़दर भीड़ कि दुश्वार है चलना सब का
और इक वो है कि रफ़्तार बना रक्खी है
एक मुश्किल हो तो आसान बना ली जाए
उस ने तो ज़िंदगी दुश्वार बना रक्खी है
पास आ जाता है मैं दूर चला जाऊँ तो
उस ने दूरी भी लगातार बना रक्खी है
ज़ेहन और दिल में जो अन-बन है वो अन-बन न रहे
इस लिए दरमियाँ दीवार बना रक्खी है
शख़्स कैसा है वो क्या है नहीं मालूम हमें
शहर में उस ने मगर धार बना रक्खी है
साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
सहयोग कीजिएरचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें