यह शरद पूर्णिमा का शशांक,
खिल गया तीव्र लेकर उजास।
पावन बृजभूमि अधीर हुई,
यमुना की लहरों में हलचल।
हो गया दृश्य रमणीक रम्य,
खिल उठे सरोवर के शतदल।
गिर रही मरीचि सुधा-भू-पर,
बुझ रही धरा की रिक्त प्यास।
मोहन सिर मोर मुकुट सुन्दर,
अधरों पर वेणु रंग श्यामल।
शृंगार करें सजती सखियाँ,
पैंरों में बाँध रही पायल।
गोपियाँ अधिक हैं कृष्ण एक,
मन में है सबके एक आस।
गिरधर ने मन की आस पढ़ी,
सखियों सम रूप रखे अपने।
हो गए सभी के संग कृष्ण,
निधिवन में रास लगे रचने।
राधा संग नृत्य करे कान्हा,
कितना अनुपम यह महारास।
खिल रही चंद्र की घटा रुचिर,
ब्रम्हांड प्रभावित गिरधर से।
है महाप्रीत की प्रेम निशा,
अमृत्व बरसता अम्बर से।
गुंजायमान मुरली की धुन,
कर रही सिक्त हर साँस साँस।
देवो में बजी दुंदभी है,
मेघो में छिड़ा घोर गर्जन।
सब जीव जंतु लता उपवन,
कर धन्य हुए लीला दर्शन।
सोलह कलाओ से चंद्र युक्त,
कर रहा अवनि भर में प्रकाश।
बृजभूमि में रास रचो प्रभु ने,
कर दिए धन्य सब पुण्य धाम।
आते हैं भक्त अनेक यहाँ,
नतमस्तक हो करते प्रणाम।
देते हैं अपने सेवक को,
निज चरणों में नटवर निवास।
साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
सहयोग कीजिएरचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें