शाश्वत-संबंध (कविता)

कितने अरसे बीत गए!
लड़ते-झगड़ते
रूठते और मनाते हुए,
ना तुम बदली!
ना मैं ही बदला।
वो संयोग पक्ष के लम्हें,
आज भी यथावत् हैं।
ना तुम मिली!
ना मैं मिल सका
पर, हमारा प्रेम
आज भी हक़ीक़त है।
तुम्हारे होने से,
मेरे होने की कल्पना है।
मेरा हर एक लम्हा,
तेरे जीवन से आबद्ध है।
मेरी सुबह, मेरा शाम
मेरी निद्रा, मेरी चेतना
सब में तुम समाहित हो
गेंदें के फूल-सा
तेरे तन की ख़ुशबू,
मेरे रोम-रोम को पुलकित
और महकाती है।
जिससे हमारा संबंध!
और भी मधुर औ जीवंत बनता है।


रचनाकार : प्रवीन 'पथिक'
लेखन तिथि : 21 जून 2025
यह पृष्ठ 129 बार देखा गया है
×

अगली रचना

अधूरे शब्द


पिछली रचना

काश!
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें