सुंदर चीज़ें शहर के बाहर हैं (कविता)

कभी-कभी ही पता लगता है
कि सुंदर चीज़ें
शहर के बाहर हैं

मसलन, ऊबे हुए
या शोर में डूबे हुए लोग
जब कहीं घूमने जा रहे होते हैं
तो शहर की चौहद्दी पार करते ही
अपना चेहरा पोंछते हैं
और एक भली-सी हवा में
लहराने देते हैं अपने बाल

चिड़ियों के साथ झूमते-डोलते
किसी झुरमुट को देखकर पता लगता है—
वाक़ई सुंदर चीज़ें शहर के बाहर हैं।

यह तब भी पता लगता है
जब पहली बार आप धँसते हैं
नाक पर रूमाल रखे
शहर की चौहद्दी के भीतर

यह शहर आपका स्वागत करता है
ऐसा एक बोर्ड ज़रूर मिलेगा शहर की चौहद्दी पर
लेकिन मन में इत्मीनान का कोई भाव जगाने के बजाय
वह धौंस जमाएगा आपके ऊपर
नाक पर रूमाल रखने के बावजूद
शहर का आतंक घुस जाएगा आपके भीतर

आप नहीं जान पाते कि वह नाक के रास्ते घुसा या कान के

आप कुछ ज़्यादा ही शरीफ़ होने के चक्कर में
कितने दयनीय बन जाते हैं!

फिर आप बरसों शहर में रह जाएँगे
बस जाएँगे किराए का कोई कमरा लेकर
यहाँ-वहाँ जाएँगे
सिनेमा का, बस का, ट्राम का टिकट कटाएँगे
अमिताभ को देखेंगे, करिश्मा को देखेंगे
और विज्ञापन के मॉडल की तरह
आपको भी पता चलेगा कोमल त्वचा का राज़
तब ताज़गी और ख़ूबसूरती के लिए
आपको भी भरोसा होने लगेगा किसी साबुन पर

सुबह-सुबह दाढ़ी बनाएँगे
अख़बार पढ़ेंगे
और कुढ़ते रहेंगे—
धत् तेरे की, यह भी कोई ज़िंदगी है!

ऐसे ही किसी वक़्त
बाहर कहीं जाने का मौक़ा मिलेगा
तब शहर की चौहद्दी पार करते ही
अपना चेहरा पोंछते हुए
आप चाहेंगे कि भर लें फेफड़ों में
सारी ताज़ी हवा
शायद आप भूल भी जाएँ
कि रूमाल जेब में है या नहीं
और आपको पता लगेगा—
सुंदर चीज़ें शहर के बाहर हैं!


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