स्वीकार (कविता)

आप जो सोच रहे हैं वही सही है
मैं जो सोचना चाहता हूँ वह ग़लत है

सामने से आपका सर्वसम्मत व्यवस्थाएँ देना सही है
पिछली क़तारों में जो मेरी छिछोरी 'क्यों' है वह ग़लत है

मेरी वजह से आपको असुविधा है यह सही है
हर खेल बिगाड़ने की मेरी ग़ैरज़िम्मेदार हरकत ग़लत है

अँधियारी गोल मेज़ के सामने मुझे पेश किया जाना सही है
रोशनी में चेहरे देखने की मेरी दरख़्वास्त ग़लत है

आपने जो सज़ा तज़वीज़ की है सही है
मेरा यह इक़बाल भी चूँकि चालाकी भरा है ग़लत है

आपने जो किया है वह मानवीय प्रबंध सही है
दीवार की ओर पीठ करने का मेरा ही तरीक़ा ग़लत है

उन्हें इशारे के पहले मेरी एक ख़्वाहिश की मंज़ूरी सही है
मैंने जो इस वक़्त भी हँस लेना चाहा है ग़लत है


रचनाकार : विष्णु खरे
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