धरा पर गंध फैली है 
हवा में साँस भारी है, 
रमक उस गंध की है 
जो सड़ाती मानवों को 
बंद जेलों में। 
सुबह में 
साँझ में है 
घुल रहा 
यह रक्त का सूरज 
उतरती धूप खेतों में 
जलाती आग वन-पौधे, 
खड़े जो गेहूँ के पौधे 
बने भाले पके बरछे। 
नहीं है झूमती बालें, 
खड़ी हैं चुप बनी लपटें 
जला देने को छप्पर वे 
उतर जाने को सीने में 
ग़रीबों के 
किसानों के। 
सड़ी झीलों से उड़ते आज 
लोभी मांस के बगले, 
दबाए चोंच में मछली, 
वहीं बैठे हुए हैं गिद्ध 
रहे हैं घूर 
मछली को 
गिरी जो 
चोंच से मछली 
लगाए घात बैठे हैं 
लगाए दाँव बैठे हैं। 
डुबाता गंदी झीलें 
बढ़ रहा है 
आज यह चश्मा 
लिए ताज़ा नया पानी 
चला आता है 
यह चश्मा 
उगाता है शहीदों को 
किनारे पर बढ़ाता है 
नए ख़ूँ को 
सदा आगे, 
डुबाता आ रहा है 
वह विषैले रक्त के जोहड़ 
लिए ताज़ा नया पानी 
चला आता है यह चश्मा 
नया मानस लगाता आ रहा है 
नया सूरज बनाता आ रहा है। 

 
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