तब नाव नहीं थी (कविता)

तब नाव नहीं थी
हमारी यात्रा पत्तों की तरह थी अंतहीन

धरती तब एक स्लेट थी
स्पर्श से याद रखते थे
हम उन रास्तों पर आवागमन
जीवन एक रास्ता था

तब नाव नहीं थी
और पानी में जादू था
चट्टानों से प्रकट हुआ था पानी

शायद उसमें कुछ था जो
गुज़रा हमारे भीतर से किसी अंतराल में
भूख और प्यास की दो इच्छाओं के बीच
बेआवाज़, वह पत्थरों के बीच चमक की तरह था

उससे पहले एक से थे रोशनी और अँधेरा
प्रेम नहीं था तब
सपने और सच्चाइयाँ अलग न थे
तब नाव नहीं थी,
नहीं था बाहर जाने का कोई रास्ता।


रचनाकार : मोहन राणा
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