तीसरा पहर (कविता)

मैंने तारों को देखा बहुत दूर
जितना मैं उनसे
वे दिखे इस पल में
टिमटिमाते अतीत के पल
अँधेरे की असीमता में,
सुबह का पीछा करती रात में
यह तीसरा पहर
और मैं तय नहीं कर पाता
क्या मैं जी रहा हूँ जीवन पहली बार,
या इसे भूलकर जीते हुए दुहराए जा रहा हूँ
साँस के पहले ही पल को हमेशा
क्या मछली भी पानी पीती होगी
या सूरज को भी लगती होगी गर्मी
क्या रोशनी को भी कभी दिखता होगा अंधकार
क्या बारिश भी हमेशा भीग जाती होगी,
मेरी तरह क्या सपने भी करते होंगे सवाल नींद के बारे में
दूर दूर बहुत दूर चला आया मैं
जब मैंने देखा तारों को—देखा बहुत पास,
आज बारिश होती रही दिन भर
और शब्द धुलते रहे तुम्हारे चेहरे से


रचनाकार : मोहन राणा
यह पृष्ठ 195 बार देखा गया है
×

अगली रचना

चकमक


पिछली रचना

तब नाव नहीं थी
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें