था अजल का मैं अजल का हो गया (ग़ज़ल)

था अजल का मैं अजल का हो गया
बीच में चौंका तो था फिर सो गया

लुत्फ़ तो ये है कि आप अपना नहीं
जो हुआ तेरा वो तेरा हो गया

काटे खाती है मुझे वीरानगी
कौन इस मदफ़न पे आ कर रो गया

बहर-ए-हस्ती के उमुक़ को क्या बताऊँ
डूब कर मैं 'शाद' इस में खो गया


  • विषय : -  
यह पृष्ठ 338 बार देखा गया है
×

अगली रचना

काबा भी है टूटा हुआ बुत-ख़ाना हमारा


पिछली रचना

हरगिज़ कभी किसी से न रखना दिला ग़रज़
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें