साहित्य रचना : साहित्य का समृद्ध कोष
संकलित रचनाएँ : 3571
सीतामढ़ी, बिहार
1996
पलकों पर ठहरी नमी अब शब्द नहीं खोजती, बस रिसती है अनकहे अपराध-भाव की तरह। भीतर का शोर इतना भारी हो गया है कि मौन भी टूटकर गिरता है चूर-चूर। फ़िलहाल, सिर्फ़ यही होता है— भीतर की अँधेरी जगहों में थोड़ी-सी रोशनी रिसती है, और मैं चुपचाप उसे आँखों तक आने देता हूँ।
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