चाय के साथ बिस्कुट बोरते हुए,
सोचा कि;
कोई एक दूसरे से लग इतना मुलायम हो जाता;
और चू जाता चाय की प्याली में;
खो कर अपना ग़ुरूर,
तो कितना अच्छा होता!
जीवन की दो कविताएँ,
अपने पूर्ण साहचर्य के पश्चात;
निढाल हो जातीं;
एक दूसरे के बाहों में,
तो कितना अच्छा होता!
दुर्वा पर पड़ी ओस की बूँद,
जीवन की धारा को;
बहा कर ले जाती;
तारों भरी बसंती आँगन में,
तो कितना अच्छा होता!
तप्त जीवन की दोपहरी में,
मधु की दो बूँद घुल जाती हमारी नसों में;
दुःख के घने मेघों को,
बहा ले जाती हवाएँ,
साथ समंदर पार,
तो कितना अच्छा होता!
हर एक आदमी,
दूसरों के उरों में;
झाँक कर देख लेता;
और महसूस कर सकता;
उसकी धमनियों में बहते रक्तचापों को,
तो कितना अच्छा होता!

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