हृदय और मस्तिष्क में,
दीर्घ काल से चल रहा अन्तर्द्वंद
आदमी के विचार को शून्य और शिथिल कर देता है।
आदमी का दर्द–
और उसके भीतर उठने वाला तूफ़ान
बाह्य रूप से मूक और शांत कर देता उसे।
वह आदमी हार जाता है।
अपने से, अपनों से, जीवन से।
मृत्यु सहज लगने लगती है।
एकांत सुकून देता है।
और मौन ही सभी प्रश्नों का हल होता है।
वह आदमी अपने को छोटा महसूस करने लगता है।
लोगों की आड़ी तिरछी निगाहें;
ज़मीन में गाड़ देती उस आदमी को।
वह आदमी जीना चाहता है।
प्रकृति के ऑंचल में सोना चाहता है।
माॅं-बाप के सपनें को भी पूरा करना चाहता है।
उसकी महत्वाकांक्षा बलवती हो,
पूछती है–
उसका लक्ष्य; उसकी गरिमा; उसकी महत्ता।
और
वह आदमी झुंझलाकर निकल जाता है
घर से बाहर,
दुनिया की भीड़ में–
निरुद्देश्य भाव से।
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