तुम चाँद की बातें करते हो (कविता)

तुम चाँद की बातें करते हो,
शहरों की सड़के ठीक नहीं,
झरने पहाड़ जीव ये जंगल,
क्या जीवन का प्रतीक नहीं।

काट रहे हो जंगलों को,
परिंदे अब घरों की तलाश में हैं,
तुझको उन पे रहम न आया,
मसरूफ़ कैसे विकास में हैं।

बारिश की बूँदे है नाच रही,
सुरज की किरण जोश में है,
कुदरत से खिलवाड़ हो रहा,
ऐ मानव क्या तू होश में है।

मिट्टी में सोना उगता था,
अब ज़हरीली फ़सलें होती है,
ज़हरों की मिलावट कर-कर के,
बर्बाद अब नस्लें होती है।

उपग्रह इतने छोड़ चुके हैं,
और बिजली को हम तरसते है,
मेघों गर्जन से अब रूह काँपती,
बिजली बन के बरसते है।

पीने का पानी भी साफ़ नहीं,
बोतल में अब वो बिकता है,
शहरों की हवा है ज़हरीली,
प्योरिफायर घरों में दिखता है।

तार्किक क्षमता खोने लगी,
बच्चे भी हैं रील के दीवाने
कैसे हम उनको समझाए,
अब बात कोई वो कब माने।

माना कि तू होड़ में उतरा है,
दिल में तेरे कुछ सपने होंगे,
जाल बेबसी का बिछा दिया,
शिकार तेरे पर अपने होंगे।

लगता है धरती छोटी है,
अंतरिक्ष की जुस्तुजू कर बैठे,
रॉकेट प्रक्षेपण करते-करते,
हम लुटाकर कई शहर बैठे।

कुदरत ने हमको समझाया,
आदमी भला समझा ही नहीं,
छाई है कैसी ख़ुमारी,
कि नशा अभी तक उतरा ही नहीं।


लेखन तिथि : 11 जुलाई 2025
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