तुम मुझे उगने तो दो (कविता)

आख़िर कब तक तलाशता रहूँगा
संभावनाएँ अँकुराने की
और आख़िर कब तक
मेरी पृथ्वी
तुम अपना गीलापन दफ़नाती रहोगी,
कब तक करती रहोगी
गेहूँ के दानों का इंतज़ार
मैं जंगली घास ही सही
तुम्हारे गीलेपन को
सबसे पहले मैंने ही तो छुआ है
क्या मेरी जड़ों की कुलबुलाहट
तुमने अपने अंतर में महसूस नहीं की है

मुझे उगाओ मेरी पृथ्वी
मैं उगकर
कोने-कोने में फैल जाना चाहता हूँ
तुम मुझे उगने तो दो
मैं
तुम्हारे गेहूँ के दानों के लिए
शायद एक बहुत अच्छी
खाद साबित हो सकूँ।


रचनाकार : शरद बिलाैरे
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