तुम्हारी तारीफ़ (कविता)

तुम्हारी तारीफ़ों के पुल नहीं बाँधूँगा।
ज़ुल्फ़ों को घटाएँ,
आँखों को झीलें,
होटों को कलियाँ,
नदियों सी चाल, नहीं कहूँगा।
न ही खिचूँगा तुम्हारी नयनाभिराम
मुस्कान का चित्र,
क्योंकि ये प्रतिमान सारे लगते हैं
पुराने और बड़े विचित्र।
बस्स! मैं कहूँगा
अपने प्रिय कवि 'विद्रोही जी' की कविता का
कुछ अंश–

“मैं तुम्हें देखता हूँ तो लगता है
क्रांति होगी।”


लेखन तिथि : 3 दिसम्बर, 2020
यह पृष्ठ 284 बार देखा गया है
×

अगली रचना

यह दुनिया एक भ्रम है


पिछली रचना

विवेकानंद का सपना
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें