उलटबाँसी (कविता)

मैंने दृष्टि से
लिया सुनने का काम

चुनांचे मेरी श्रवणेंद्रिय ने
मुझे दिखाए स्तब्धकारी दृश्य

स्पर्श ने सुनाया
शास्त्रीय राग कल्याणी दादरा
जीभ को बनाकर क़लम
वाणी की रोशनाई से
मैंने मंत्र लिखे सुबह के

और हाथ की उँगलियों ने
भजन गाया परिश्रम का

क्या ये सब
उलटबाँसियाँ हैं कबीर की?

कि इक्कीसवीं सदी के आते-आते
मेरे पाँव हो गए बालिग़
और उन्होंने शुरू कर दिया सोचना
संपूर्ण गरिमा के साथ

यहाँ तक कि दिमाग़
फटे-पुराने जूते पहनकर भी
दौड़ने लगा ओलंपिक की दौड़ में


रचनाकार : उद्‌भ्रान्त
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