वह कोई अनुपम नहीं होगा
और न ही बिल्कुल अलहदा
लेकिन मेरी कल्पना में वह ऐसा ही था
कभी वह हरी-भरी घाटियों बीच
नज़र आता मुझे
कभी एक झरने के ठीक बग़ल में
चौड़ी चट्टान पर खड़ा
बाँहें फैलाकर पुकारता
कभी किसी गाँव के कोने में
संकोच के साथ दिखता मुझे
कभी शहर के आस-पास
जैसे उसे गाँव आया ही नहीं हो रास
कभी मैं उदास होता
उदासी के प्रतिरूप में खड़ा करता उसे
एक बियाबान में अकेले तपते हुए
किसी रेगिस्तानी पेड़ की तरह
यह मेरे प्रिय कवि का घर था
जहाँ मैं कभी नहीं गया
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