उठ-उठ री लघु-लघु लोल लहर!
करुणा की नव अँगराई-सी,
मलयानिल की परछाईं-सी,
इस सूखे तट पर छिटक छहर!
शीतल कोमल चिर कंपन-सी,
दुर्ललित हठीले बचपन-सी,
तू लौट कहाँ जाती है री—
यह खेल-खेल ले ठहर-ठहर!
उठ-उठगिर-गिर-गिर फिर-फिर आती,
नर्तित पद-चिह्न बना जाती,
सिकता की रेखाएँ उभार—
भर जाती अपनी तरल-सिहर!
तू भूल न री, पंकज वन में
जीवन के इस सूनेपन में,
ओ प्यार-पुलक से भरी ढुलक!
ओ चूम पुलिन के विरस अधर!
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